शुक्रवार, 10 मई 2013

ख़तरे में अभिव्यक्ति : अभिव्यक्ति के ख़तरे : कविता वाचक्नवी

ख़तरे में अभिव्यक्ति : अभिव्यक्ति के ख़तरे  : कविता वाचक्नवी


कल 10 मई को नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाले हिन्दी दैनिक 'जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ (6) पर मेरा एक छोटा-सा लेख "दुनिया मेरे आगे" स्तम्भ में प्रकाशित  हुआ है। पूरा लेख अविकल रूप में यहाँ दे रही हूँ। नीचे समाचार-पत्र की वह कतरन भी है 






अभी 'पेन-अमेरिका' द्वारा जारी सूचना से पता चला कि सिंगापुर के एक कार्टूनिस्ट (Leslie Chew) को एक कार्टून बनाने के दंड स्वरूप तीन वर्ष की जेल की सजा सुनाई जा सकती है। उनके द्वारा बनाया गया कार्टून ऊपर संलग्न चित्र में देखा जा सकता है। 


दूसरी ओर आज ही 'जनसत्ता' से पता चला कि 20 अप्रैल को पद्मश्री मिलने के पश्चात् 22 अप्रैल को दिल्ली के एक मुशायरे में निदा फ़ाज़ली जी द्वारा एक शे'र पढ़े जाने के बाद उनके विरुद्ध उग्र वातावरण बन रहा है और रोष फैल रहा है। ओम जी द्वारा उद्धृत वह शे'र यों है - 

"उठ-उठ के मसजिदों से नमाज़ी चले गए
दहशतगरों के हाथ में इसलाम रह गया।"


इस रोष का समाचार पढ़कर समाज में बढ़ती असहिष्णुता के प्रति मन में रोष भर गया। कट्टर ( व अकट्टर ) हिन्दुत्व के विरुद्ध तो आमतौर पर अधिकांश ही लोग आवाज बुलंद करते रहते हैं और गाली तक भी देते रहते हैं, उसमें कोई साहस की बात नहीं, वह बड़ा सरल दैनंदिन कार्य है। किन्तु हिंदुत्वेतर वर्गों के विरुद्ध लिखने के लिए बड़ा साहस चाहिए। कभी यह साहस कबीर ने किया था और उस से भी बढ़कर यह साहस किया था महर्षि दयानन्द सरस्वती ने, जिन्होने हिन्दुत्व सहित प्रत्येक मत की अवैज्ञानिक धारणाओं का कड़ा खण्डन 'सत्यार्थ प्रकाश' में किया था। किन्तु समाज जानता है कि न तो कबीर और न ही दयानन्द अपने-अपने समय में इस प्रकार किसी विरोधी मत के हिंसात्मक निशाने पर थे। दयानन्द के विरुद्ध उनकी हत्या की योजनाएँ बनाई गईं किन्तु वे कुछ व्यक्ति-विशेष के कारण; पूरा समाज सांप्रदायिक उग्रता से हत्यारा हो उठा हो, ऐसा तब भी नहीं था। कबीर के समय जैसी सद्भावना यद्यपि दयानन्द के समय तक नहीं बची थी पुनरपि समाज आज की तुलना में अत्यधिक उदार था। लोग जानते थे कि दयानन्द या कबीर निन्दा के लिए ऐसा नहीं लिख/कह रहे अपितु वे एक सामाजिक, मानवीय, या वैज्ञानिक कसौटी को आधार बना कर निष्पक्ष भाव से ऐसा कह रहे हैं। 


यद्यपि किसी भी संप्रदाय, व्यक्ति, समाज, देश, वर्ग आदि की अवैज्ञानिकता अथवा मानव विरोधी कार्यों का निष्पक्ष विरोध किया जाना अनुचित नहीं है। कबीर के द्वारा ऐसा किया जाने के बावज़ूद दोनों संप्रदायों ने उन्हें अपने वर्ग का साबित करना चाहा। लगता है जैसे-जैसे समय बीत रहा है आधुनिक समाज और भी पिछड़ता जा रहा है। लोग हिंसा में सुख ढूँढने लगे हैं। स्वतन्त्रता और विभाजन के समय तक वर्ग इतने असहिष्णु नहीं थे। मुस्लिम व हिन्दू समाज परस्पर सहयोग व आत्मीयता से रहते थे। आज दिखावे की दीवारें हट गई हैं किन्तु हृदयों में वैमनस्य भर गए हैं। 


विभाजन के समय तक भी स्वयं मेरा अपना परिवार इस बात का साक्षी है कि बहुतेरे हिन्दुओं ने मुसलमानों की रक्षा अपने प्राणों को दाँव पर लगा कर की और बहुतेरे मुस्लिमों ने भी हिन्दुओं की रक्षा जी-जान से की। जब तक विभाजन का दौर नहीं प्रारम्भ हुआ था उस समय तक मुस्लिम परिवार व हिन्दू परिवार परस्पर अत्यन्त सौहार्द व भाईचारे से रहते थे। यद्यपि धार्मिक रीतिरिवाजों के कारण खान-पान की शुचिता व बाह्याचारों आदि का परस्पर भान था और उनका सम्मान किया जाता था। उन्हें धार्मिक नियम की तरह पूरे आदर से निभाया जाता था। परन्तु दिलों में कतई दूरियाँ न थीं यद्यपि बाह्याचारों में नियमों का कड़ाई से पालन होता था। आज बाह्याचारों में कोई दूरियाँ नहीं रहीं, कोई भेद नहीं रहा, पालन की औपचारिक दीवार भी नहीं रह गई है, लगता है सब दूरियाँ व बाधाएँ समाप्त किन्तु दिलों में अन्तराल व दूरियों के समुद्र हहरा रहे हैं।  


अनुदारता व हथियाए गए वर्चस्व के बूते लोग, सरकारें, वर्ग व समाज दूसरों का शोषण करने की मनोवृत्ति से ग्रसित हैं। भारत सरकार अपना बल आजमाती है, इन्टरनेट से पन्ने हटवाती है, वेबसाईट्स हैक करवाती है, अभिव्यक्ति की चीख़ों को गले में घोंट कर मार देने के लिए; क्योंकि वह अपने पक्ष में न उठने वाले स्वरों का अस्तित्व मेट देना चाहती है। सिंगापुर की सरकार भी एक कार्टूनिस्ट को 3 साल के लिए जेल में ठूँसना चाहती है। विकीलीक्स और 'Anonymous' नामक (Hacktivist group) जन्म लेते हैं, जिनकी आधिकारिक स्वीकार्यता यद्यपि न होने पर भी वे मानवविरोधी नहीं हैं और न ही उग्रता से दमन इनका किया जाता है।


उग्रता और आतंक से विरोधी स्वरों का गला घोंटने की यह सामाजिक अथवा आधिकारिक प्रवृत्ति अत्यंत घातक है; जो इस बात का पता देती है कि हम एक आदिम समाज की संरचना की ओर बढ़ रहे हैं, हम अधिक पिछड़ रहे हैं और हम अधिक संकुचित हो रहे हैं। तभी तो हम से कई सौ वर्ष पुराना समाज, समाज सुधारकों के प्रति यद्यपि वैसा तिक्त नहीं था और हम रचनाकारों की अभिव्यक्ति के प्रति सरकारी/ गैर सरकारी प्रत्येक रूप में अंकुश लगाने के लिए तत्पर हैं और अपनी तत्परता में हम कोई भी अपराध करने के लिए भी स्वतंत्र अनुभव करते हैं। अभिव्यक्ति के खतरे उठाने वालों के लिए हमारे समाज में स्थान नहीं रहा । हम हैं क्या ?







3 टिप्‍पणियां:

  1. विचारणीय बात।
    इस संबंध में मुझे एक प्रख्यात शायर, गीतकार(जो खुद भी एक मुस्लिम हैं) की कही एक बात ध्यान आ रही है। उन्होंने इस बढ़ती कट्टरता का साम्य बचपन में हम सबकी सुनी राक्षस और तोते वाली कहानी से की थी। चूँकि वो मीटिंग मुस्लिम बहुल इलाके में हुई थी, अधिकतर वक्ताओं ने बढ़ते हिन्दू कट्टरवाद पर चिंता व्यक्त की थी(दूसरों की आँख में तिनका दिखने वालों को अपनी आंख में पड़ा शहतीर भी नहीं दिखता)। अंत में जब इन्होंने बोलना शुरू किया तो उन्होंने ऐसा ही कुछ कहा कि बहुसंख्यक कट्टरवाद रूपी राक्षस को खत्म करना है तो पहले मजहबी उन्माद रूपी तोते को खत्म करें जिसमें उस राक्षस की जान बसती है।

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  2. सत्य जब प्रमुख नहीं रह जाता है तो मान्यताओं को चिपकाये रहते हैं हम सब। कचोटता आलेख।

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  3. समय के साथ इस सभ्य कहे जाने वाले समाज में इंसान को अपने बिचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली किन्तु अब उग्र बिचारों वाले लोग उस पर आपत्ति करने लगे हैं. ये कितने अफ़सोस की बात है. शायद एक दिन हर कोई अपनी अभिव्यक्ति का गला घोंट देगा या फिर खतरों का सामना करना होगा.

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