गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

महिला होना 'लाभ'-कारी ?

महिला होना 'लाभ'-कारी ?  :  कविता वाचक्नवी





एक लेखक मित्र (जिनका नाम ऐसा है कि यदि अंत में A जोड़ दिया जाए तो वह स्त्री नाम हो जाता है, जैसे Neel से Neela आदि ) सदा अपने असली नाम से ही लिखते रहे हैं और अपने नाम को स्त्रीवाची नहीं बनाया। इस बात का उल्लेख करते हुए उन्होंने  लिखा -
 " मेरे कुछ मित्र कह सकते हैं - मैंने गलती की थी. क्यों? यह आप समझ सकते हैं."

अभिप्राय यह कि यदि स्त्री के नाम से लिखा तो अधिक लाभ होता; पुरुष के नाम से लिख कर गलती की गई। 


जिन्हें यह गलती लगती है, उन्हें तो जन्म भी स्त्री के रूप में लेना चाहिए। यह क्या बात हुई कि पुरुष के रूप में जन्म लेना तो अपनी जन्मजात विशेषता लगे और फिर महिलाओं की सफलता को उनके स्त्री होने के लाभ के रूप में लिया जाए। 


ऐसा कहने, मानने वाले या इन बातों पर हँस कर सहमत होने वाले लोग पुरुष की सफलता को तो पुरुष की योग्यता का परिणाम समझते हैं किन्तु महिलाओं की रत्ती-भर-सी सफलता भी उन्हें हजम नहीं होती और वे उसे उनकी योग्यता का परिणाम नहीं अपितु उनके स्त्री होने का परिणाम समझते हैं। यदि ऐसा ही होता तो ऐसा मानने वाले पुरुषों के घर की स्त्रियों को सारे ऊँचे ओहदे क्यों नहीं मिल जाते, वे क्यों सभी सर्वश्रेष्ठ पदों पर आसीन नहीं कर दी जातीं और क्यों अपने विषय की विशेषज्ञता से इतर क्षेत्रों की सर्वेसर्वा नहीं बना दी जातीं? 


सीधा-सा अर्थ है कि 'विशेषज्ञता'  महत्वपूर्ण होती है, भले ही थोड़ी-सी भी क्यों न हो; और महिलाएँ यदि कुछ क्षेत्रों में अपना स्थान बना पाई हैं, या बना पाती हैं तो उसी बूते पर व बिना किसी पारिवारिक सामाजिक सहयोग के ;  घरों में रोटियाँ बेलते हुए, बच्चे पालते हुए और पतियों का अहम् झेलते हुए, सामाजिक विसंगतियों से दो-चार होते हुए और बिना कोई सेवा लिए। 


अपवाद हर जगह होते हैं, अच्छे बुरे लोग भी। उसके आधार पर महिलाओं का मखौल व हँसी उड़ाना, उनकी सफलता को उनकी योग्यता नहीं, अपितु उनके स्त्री होने का फल व लाभ घोषित करना, उन्हें दोयम सिद्ध करने व उनसे ईर्ष्या करने की मनोवृत्ति का पता देते हैं। 


इतना ही नहीं, मनोविज्ञान के अनुसार ऐसे सब व्यवहार वही लोग करते हैं जो किसी न किसी रूप में किसी हीनताग्रंथि के शिकार होते हैं। उनकी यही कुण्ठा (कॉम्प्लेक्स/ इनफीरियॉरिटी) अहम्, ईगो, वर्चस्व की भावना आदि के रूप में व्यक्त होती है। इसीलिए जो व्यक्ति व समाज महिलाओं के प्रति जितना अधिक शिष्ट व संस्कारवान होता है, उसे उतना ही अधिक सभ्य माना जाता है। महिलाओं के प्रति अशिष्ट, क्रूर, अपमानजनक आदि रवैया (व्यवहार व भाषा सहित ) रखने वाले लोगों व समाजों को असभ्य, संस्कारहीन, मूर्ख, अपढ़ व निंदनीय ही माना जाता है। महिलाएँ तो ऐसे लोगों से घृणा करती ही हैं। 


जिस परिवार व जिस समाज की महिलाएँ जितनी अधिक शान्त, सुखी व सहज हों, समझ लीजिए वह परिवार व वह समाज उतना ही अधिक सभ्य, शिष्ट व सुसंस्कृत है। उस परिवार के पुरुष उतने ही अच्छे हैं। क्योंकि पुरुषों का स्त्री के प्रति दृष्टिकोण, व्यवहार व भाषा उनके असली चरित्र का पता देते हैं। इसलिए महिलाओं से दुर्व्यवहार करने, अपमान करने अथवा उनका मखौल आदि उड़ाने से पहले सावधान हो जाइए, क्योंकि ऐसा करके वस्तुत: व्यक्ति अपने आपका पता दे रहा होता है, अपनी आधिपत्य की आदिम ग्रन्थि सार्वजनिक कर रहा होता है। 


7 टिप्‍पणियां:

  1. यह सच्चाई है कि आज महिलाओं ने हर उस क्षेत्र में सफ़लता हासिल की है जहां कभी पुरुषों का एकाधिकार माना जाता था। समय के साथ समाज और लोगों की भी सोच बदलेगी। कुछ लोगों की सोच सबकी सोच नहीं होती।

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  2. नारी होने का लाभ तो उसे मिलता है , पर कविता जी का आग़ह है कि उस की सफलता को उस की
    योग्यता माना जाए न कि नारी होने की सुविधा । मैं इस से सहमत हूँ । योग्यता में जब नारी किसी से
    कम नहीं तो उसे किस रिआयत की ज़रूरत है । वह नारी के साथ माँ , पत्नी बहन , भाभी आदि भी है
    तो इस कारण उसे अतिरिक्त सम्मान मिलना उचित और आवश्यक है । पर यह उस के प़ति कोई
    रिआयत नहीं है बल्कि पुरुषसमाज का पुनीत कर्तव्य है । पुरुष माँ नहीं हो सकता । केवल नारी माँ हो
    सकती है । इस कारण भी नारी पूजनीय है ।

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  3. जो ऐसा सोचते हैं, मुझे उनकी स्त्रियो पर भी तरस आता है, क्यूकी ऐसी हीं मानसिकता को वो झेल रही हैं... सच में, पुरुष प्रधान बनते बनते यह देश और यह संस्कृति नारी - अधीन देश बन गया है... अर्थात, नारियो के हीनता में पुरुषो को महानता, स्त्रियो की ज़िम्मेदारी है के अपने बेटो को क्या यही सीख दे रही हैं??

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  4. घर की महिलाओं को बस शान्तिप्रियता देने के प्रयास में लगे हैं हमारे जीवन..

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  5. आपने कितना सही लिखा है कि -जिस घर की स्त्री शांत होती है उस घर के पुरुष सभ्य होते है -डॉ कविता जी आपके इस लेख में समझने को बहुत कुछ है अगर समाज इस तथ्य को स्वीकार कर ले और स्त्री का व्यवहार पुरुष के व्यवहार और मानसिक स्तर का दर्पण मानने लगे तो शायद उन्हें घबराहट भी हो भविष्य में -जब ऐसी चर्चाये आम होंगी ।
    हमारा समाजवाद और लोकतंत्र हर नारी को अलग विचार मंच देकर उन्हें पुरुष की सत्ता से मुक्त कर सकता है वह केवल जीवन साथी के रूप में अपना स्थान बना भी सकती है और पुरुष को बाध्य भी कर सकती है केवल देर --नारी के चिंतन को प्रसार प्रचार मिलने की है ।

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